हर कदम पर मै एक उड़ान भरता रहा,
पर संभलने की जगह मैं गिरता रहा।
कुछ हाथ बढ़े तो थे मेरी मदद को शायद,
फिर ये आंसू बहते गए
और हम रेत की तरह फिसलते गए,
शायद जीने की एक उम्मीद सी जग रही थी कहीं,
अभी भी एक लौ जल रही थी कहीं,
आग शायद कहीं तो लगी थी,
पर जो जल के भी बुझी थी,
वक्त बीतता गया लौ जलती रही,
वह धीरे धीरे ज्वाला बनकर बढ़ती रही,
हर क्षण बिगड़ती बनती रही,
यूं ही दिन दिन वह धधकती रही,
कभी लगा वह आक्रोश कम सा था,
पर वह छुपारुसतम सा था,
लपटे उसकी बढ़ती रही
मुझे अपने आगोश में भरती रही,
फिर से कदमों के आहट मुझे महसूस हुई,
फिर कहीं खामोशी परछाई बनी,
शायद उम्मीद को रोशन करने कोई यहां आया था,
वो कोई और नहीं मेरा अपना ही साया था,
जिसने वो लौ जलाई थी वो मैं और मेरी परछाई थी।